Friday, March 19, 2010

नदिया की धार

कलकल करता जल शीतल
कितना पावन, कितना निर्मल
लुभाती है नदिया की धार
चराचर का जीवन आधार ।

इठलाती बलखाती लहरें
मीठा राग सुनाती हैं
नदिया का सागर में मिलना
तय है, हमें बताती हैं ।

अपलक निहारूं मैं तट पर
इसकी चांदी सी लहरों को
बाहों में आओ भर लूं
देती आमंत्रण हम सबको ।

कितने सीप, सीप में मोती
हीरे पन्ने और पुखराज
मुझमें है खामोश पड़े
संस्कृति सभ्यताओं के राज ।

नदी हूँ मैं
गति ही मेरी नियति है
रोकोगे तो खो दोगे
बहना ही मेरी प्रकृति है ।

अमृत समान यह स्वच्छ नीर
इस जैसा कोई और ना होगा
दूषित जो कर दिया मुझे
सृष्टि का फलना ना होगा ।

आ जाओ, तुमको अंक समा लूं
तन मन हो जाए धवल
इतनी शीतलता भर दूं
तेरा मन ना रहे विकल ।

है मुझको उसका इन्तजार
साहिल को मेरे संवारें जो
मिला ना ऐसा गोताखोर
मणि गरिमा को खोजे जो ।

3 comments:

  1. नदी हूँ मैं
    गति ही मेरी नियति है
    रोकोगे तो खो दोगे
    बहना ही मेरी प्रकृति है ।bhawpurn rachna

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  2. नदी हूँ मैं
    गति ही मेरी नियति है
    रोकोगे तो खो दोगे
    बहना ही मेरी प्रकृति है ।


    -बहुत उम्दा संदेश है इन पंक्तियों में..बधाई इस बेहतरीन रचना के लिए.

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  3. मुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! बहुत ख़ूबसूरत रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! इस उम्दा रचना के लिए ढेर सारी बधाइयाँ!
    मेरे ब्लोगों पर आपका स्वागत है!

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