Wednesday, August 11, 2010

लहरें उतरी आसमान से

लहरें उतरी आसमान से
कहती हैं सब है मेरा
धीर धरा या नीला नभ
इन सबको हमने है घेरा .

कैसे रूखे रह पाओगे
जीवन प्राण मैं भर दूँगी
अतृप्त रहे न कोई जगत में
तृप्त मैं सबको कर दूँगी .

नदी नाप ले गहराई
पोखर देखे अपनी ऊंचाई
धरती सोख रही है मुझको
देने को अपनी तरुणाई .

दोनों हाथ उलीच रही मैं
भर लो अपना घर आँगन
पुरवाई संग लौट गई तो
रीता न रह जाए उनका मन .

धो दूं सब मन का कलुष
नहला दूं सृष्टि सारी
हरी ओढ़नी पहना दूं
या महका दूं रंगों की क्यारी .

प्रतीक्षा मैं है इन्द्रधनुष
कब खुद पर इतराएगा
बदरा मितवा जब देंगे मौका
सतरंगी छटा दिखायेगा .

मैं आई बड़ी आतुर सी
है सारा जग छाप लिया
बाहर भीतर शीतल कर दूं
तुमने जो मुझको याद किया .

4 comments:

  1. दोनों हाथ उलीच रही मैं
    भर लो अपना घर आँगन
    पुरवाई संग लौट गई तो
    रीता न रह जाए उनका मन .
    bahut gahree bhawnayen

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  2. एक अदम्य जिजीविषा का भाव कविता में इस भाव की अभिव्यक्ति हुई है।

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  3. इसकी प्यासी कब से धरती।

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  4. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति के साथ ही एक सशक्त सन्देश भी है इस रचना में।

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